छत्रपति शाहू महाराज को एक भारत में सच्चे प्रजातंत्रवादी और समाज सुधारक के रूप में जाना जाता था। वे कोल्हापुर के इतिहास में एक अमूल्य मणि के रूप में आज भी प्रसिद्ध हैं। छत्रपति शाहू महाराज ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने राजा होते हुए भी दलित और शोषित वर्ग के कष्ट को समझा और सदा उनसे निकटता बनाए रखी। उन्होंने दलित वर्ग के बच्चों को मुफ़्त शिक्षा प्रदान करने की प्रक्रिया शुरू की थी। गरीब छात्रों के छात्रावास स्थापित किये और बाहरी छात्रों को शरण प्रदान करने के आदेश दिए।शाहू महाराज के शासन के दौरान 'बाल विवाह' पर ईमानदारी से प्रतिबंधित लगाया गया। उनके पिता का नाम श्रीमंत जयसिंह राव आबासाहब घाटगे था। छत्रपति शाहू महाराज का बचपन का नाम 'यशवंतराव' था। छत्रपति शिवाजी महाराज (प्रथम) के दूसरे पुत्र के वंशज शिवाजी चतुर्थ कोल्हापुर में राज्य करते थे।
राजर्षि छत्रपति शाहू महाराज का जन्म 26 जून 1874 में हुआ था. उनके बचपन का नाम यशवंत रॉव था। बाल्य-अवस्था में ही बालक यशवंतराव को छत्रपति शाहू महाराज की हैसियत से कोल्हापुर रियासत की राजगद्दी को सम्भालना पड़ा था.
छत्रपति शाहू महाराज की माता राधाबाई मुधोल राज्य की राजकन्या थी। पिता जयसिंग रॉव उर्फ़ अबासाहेब घाटगे कागल निवासी थे। उनके दत्तक पिता शिवाजी चतुर्थ व दत्तक माता आनंदी बाई थी। राजर्षि छत्रपति शाहू महाराज केवल 3 वर्ष के थे तभी उनकी सगी माँ राधाबाई 20 मार्च 1977 को मृत्यु को प्राप्त हुई। छत्रपति संभाजी की माँ का देहांत बचपन में ही हुआ था। इसलिए उनका लालन-पालन जिजाबाई ने किया था। छत्रपति शाहू महाराज की उम्र जब 20 वर्ष थी, उनके पिता अबासाहेब घाटगे की मृत्यु(20 मार्च 1886 ) हुई थी।
छत्रपति शिवाजी महाराज ( प्रथम) के दूसरे पुत्र के वंशज शिवाजी (चतुर्थ ) कोल्हापुर में राज्य करते थे. ब्रिटिश षडयंत्र और अपने ब्राह्मण दीवान की गद्दारी की वजह से जब शिवाजी (चतुर्थ ) का कत्ल हुआ तो उसकी विधवा आनंदीबाई ने अपने एक जागीरदार अबासाहेब घाटगे के पुत्र यशवंतराव को 17 मार्च सन 1884 में गोद लिया था. अब उनका नाम शाहू छत्रपति महाराज हो गया था।
छत्रपति शाहू महाराज की शिक्षा राजकोट के राजकुमार विद्यालय में हुई थी। प्रारंभिक शिक्षा के बाद आगे की पढ़ाई रजवाड़े में ही एक अंग्रेज शिक्षक 'स्टुअर्ट मिटफर्ड फ्रेज़र ' के जिम्मे सौपी गई थी। अंग्रेजी शिक्षक और अंग्रजी शिक्षा का प्रभाव छत्रपति शाहू महाराज के दिलों-दिमाग पर गहराई से पड़ा था। वैज्ञानिक सोच को न सिर्फ वे मानते थे बल्कि इसे बढ़ावा देने का हर संभव प्रयास करते थे। पुरानी प्रथा, परम्परा अथवा काल्पनिक बातों को वे महत्त्व नहीं देते थे।
दलितों की दशा में बदलाव लाने के लिए उन्होंने दो ऐसी विशेष प्रथाओं का अंत किया जो युगांतरकारी साबित हुईं.पहला,1917 में उन्होंने उस ‘बलूतदारी-प्रथा’ का अंत किया,जिसके तहत एक अछूत को थोड़ी सी जमीन देकर बदले में उससे और उसके परिवार वालों से पूरे गाँव के लिए मुफ्त सेवाएं ली जाती थीं.इसी तरह 1918 में उन्होंने कानून बनाकर राज्य की एक और पुरानी प्रथा ‘वतनदारी’ का अंत किया तथा भूमि सुधार लागू कर महारों को भू-स्वामी बनने का हक़ दिलाया.इस आदेश से महारों की आर्थिक गुलामी काफी हद तक दूर हो गई.दलित हितैषी उसी कोल्हापुर नरेश ने 1920 में मनमाड में दलितों की विशाल सभा में सगर्व घोषणा करते हुए कहा था-‘मुझे लगता है आंबेडकर के रूप में तुम्हे तुम्हारा मुक्तिदाता मिल गया है .मुझे उम्मीद है वो तुम्हारी गुलामी की बेड़ियाँ काट डालेंगे.’उन्होंने दलितों के मुक्तिदाता की महज जुबानी प्रशंसा नहीं की बल्कि उनकी अधूरी पड़ी विदेशी शिक्षा पूरी करने तथा दलित-मुक्ति के लिए राजनीति को हथियार बनाने में सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान किया.किन्तु वर्ण-व्यवस्था में शक्ति के स्रोतों से बहिष्कृत तबकों के हित में किये गए ढेरों कार्यों के बावजूद इतिहास में उन्हें जिस बात के लिए खास तौर से याद किया जाता है,वह है उनके द्वारा किया गया आरक्षण का प्रावधान.
आरक्षण की व्यवस्था
सन 1902 के मध्य में शाहू महाराज इंग्लैण्ड गए हुए थे। उन्होंने वहीं से एक आदेश जारी कर कोल्हापुर के अंतर्गत शासन-प्रशासन के 50 प्रतिशत पद पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षित कर दिये। महाराज के इस आदेश से कोल्हापुर के ब्राह्मणों पर जैसे गाज गिर गयी। उल्लेखनीय है कि सन 1894 में, जब शाहू महाराज ने राज्य की बागडोर सम्भाली थी, उस समय कोल्हापुर के सामान्य प्रशासन में कुल 71 पदों में से 60 पर ब्राह्मण अधिकारी नियुक्त थे। इसी प्रकार लिपिकीय पद के 500 पदों में से मात्र 10 पर गैर-ब्राह्मण थे। शाहू महाराज द्वारा पिछड़ी जातियों को अवसर उपलब्ध कराने के कारण सन 1912 में 95 पदों में से ब्राह्मण अधिकारियों की संख्या अब 35 रह गई थी।सन 1903 में शाहू महाराज ने कोल्हापुर स्थित शंकराचार्य मठ की सम्पत्ति जप्त करने का आदेश दिया। दरअसल, मठ को राज्य के ख़ज़ाने से भारी मदद दी जाती थी। कोल्हापुर के पूर्व महाराजा द्वारा अगस्त, 1863 में प्रसारित एक आदेश के अनुसार, कोल्हापुर स्थित मठ के शंकराचार्य को अपने उत्तराधिकारी की नियुक्ति से पहले महाराजा से अनुमति लेनी आवश्यक थी, परन्तु तत्कालीन शंकराचार्य उक्त आदेश को दरकिनार करते हुए संकेश्वर मठ में रहने चले गए थे, जो कोल्हापुर रियासत के बाहर था। 23 फ़रवरी, 1903 को शंकराचार्य ने अपने उत्तराधिकारी की नियुक्ति की थी। यह नए शंकराचार्य लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के क़रीबी थे। 10 जुलाई, 1905 को इन्हीं शंकराचार्य ने घोषणा की कि- "चूँकि कोल्हापुर भोसले वंश की जागीर रही है, जो कि क्षत्रिय घराना था। इसलिए राजगद्दी के उत्तराधिकारी छत्रपति शाहू महाराज स्वाभविक रूप से क्षत्रिय हैं।
No comments:
Post a Comment