श्रीनिवास रामानुजन् - निबंध लिस्ट

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Saturday, March 7, 2020

श्रीनिवास रामानुजन्


जन्म: 22 दिसम्बर 1887

मृत्यु: 26 अप्रैल 1920

कार्यक्षेत्र: गणित

उपलब्धियां: 

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            दुनिया में कभी-कभी ऐसी विलक्षण प्रतिभाएं जन्म लेती हैं जिनके बारे में जानकार सभी आश्चर्य चकित रह जाते हैं। महान गणितग्य श्रीनिवास अयंगर रामानुजन एक ऐसी ही भारतीय प्रतिभा का नाम है जिनपर न केवल भारत को परन्तु पूरे विश्व को गर्व है। महज 33 वर्ष की उम्र में शायद ही किसी वैज्ञानिक और गणितग्य ने इतना कुछ किया हो जितना रामानुजन ने किया। यह आश्चर्य की ही बात है कि किसी भी तरह की औपचारिक शिक्षा न लेने के बावजूद उन्होंने उच्च गणित के क्षेत्र में ऐसी विलक्षण खोजें कीं जिससे इस क्षेत्र में उनका नाम हमेशा के लिए अमर हो गया। ये न केवल भारत बल्कि समूचे विश्व का दुर्भाग्य था कि गणित का ये साधक मात्र तैंतीस वर्ष की आयु में तपेदिक के कारण परलोक सिधार गया।

         रामानुजन बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। आपको ये जानकार हैरानी होगी कि इन्होंने स्वयं गणित सीखा और अपने चिर जीवनकाल में गणित के 3,884 प्रमेयों का संकलन किया। उनके द्वारा दिए गए अधिकांश प्रमेय गणितज्ञों द्वारा सही सिद्ध किये जा चुके हैं। उन्होंने अपने प्रतिभा के बल पर बहुत से गणित के क्षेत्र में बहुत से मौलिक और अपारम्परिक परिणाम निकाले जिनपर आज भी शोध हो रहा है। हाल ही में रामानुजन के  गणित सूत्रों को क्रिस्टल-विज्ञान में प्रयुक्त किया गया। इनके कार्य से प्रभावित गणित के क्षेत्रों में हो रहे काम के लिये और इस महान गणितग्य को सम्मानित करने के लिए रामानुजन जर्नल की स्थापना भी की गई है।

प्रारंभिक जीवन

                  श्रीनिवास अयंगर रामानुजन का जन्म 22 दिसम्बर 1887 को तमिल नाडु के कोयंबटूर के ईरोड नामक गांव में एक पारंपरिक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम श्रीनिवास अय्यंगर और माता का नाम कोमलताम्मल था। जब बालक रामानुजन एक वर्ष के थे तभी उनका परिवार कुंभकोणम में आकर बस गया था। इनके पिता एक स्थानिय व्यापारी के पास मुनीम का कार्य करते थे। शुरू में बालक रामानुजन का बौद्धिक विकास दूसरे सामान्य बालकों जैसा नहीं था और वह तीन वर्ष की आयु तक बोलना भी नहीं सीख पाए थे, जिससे उनके माता-पिता को चिंता होने लगी। जब बालक रामानुजन पाँच वर्ष के थे तब उनका दाखिला कुंभकोणम के प्राथमिक विद्यालय में करा दिया गया।

              पारंपरिक शिक्षा में रामानुजन का मन कभी भी नहीं लगा और वो ज्यादातर समय गणित की पढाई में ही बिताते थे। आगे चलकर उन्होंने दस वर्ष की आयु में प्राइमरी परीक्षा में पूरे जिले में सर्वोच्च अंक प्राप्त किया और आगे की शिक्षा के लिए टाउन हाईस्कूल गए।

              रामानुजन बड़े ही सौम्य और मधुर व्यवहार के व्यक्ति थे। वह इतने सौम्य थे कि कोई इनसे नाराज हो ही नहीं सकता था। धीरे-धीरे इनकी प्रतिभा ने विद्यार्थियों और शिक्षकों पर अपना छाप छोड़ना शुरू कर दिया। वह गणित में इतने मेधावी थे कि स्कूल के समय में ही कॉलेज स्तर का गणित पढ़ लिया था। हाईस्कूल की परीक्षा में इन्हें गणित और अंग्रेजी मे अच्छे अंक लाने के कारण छात्रवृत्ति मिली जिससे कॉलेज की शिक्षा का रास्ता आसान हो गया।

            उनके अत्यधिक गणित प्रेम ने ही उनकी शिक्षा में बाधा डाला। दरअसल, उनका गणित-प्रेम इतना बढ़ गया था कि उन्होंने दूसरे विषयों को पढना छोड़ दिया। दूसरे विषयों की कक्षाओं में भी वह गणित पढ़ते थे और प्रश्नों को हल किया करते थे। इसका परिणाम यह हुआ कि कक्षा 11वीं की परीक्षा में वे गणित को छोड़ बाकी सभी विषयों में अनुत्तीर्ण हो गए जिसके कारण उनको मिलने वाली छात्रवृत्ति बंद हो गई। उनके परिवार की आर्थिक स्थिति पहले से ही ठीक नहीं थी और छात्रवृत्ति बंद होने के कारण कठिनाईयां और बढ़ गयीं। यह दौर उनके लिए मुश्किलों भरा था।

          घर की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए रामानुजन ने गणित के ट्यूशन और कुछ एकाउंट्स का काम किया। वर्ष 1907 में उन्होंने बारहवीं कक्षा की प्राइवेट परीक्षा दी लेकिन इस बार भी वह अनुत्तीर्ण हो गए। इस असफलता के साथ उनकी पारंपरिक शिक्षा भी समाप्त हो गई।

संघर्ष का समय

          बारहवीं कक्षा के प्राइवेट परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने के बाद के कुछ वर्ष उनके लिए बहुत हताशा और गरीबी भरे थे। इस दौरान रामानुजन के पास न कोई नौकरी थी और न ही किसी संस्थान अथवा प्रोफेसर के साथ काम करने का अवसर। इन विपरीत परिस्थितियों में भी रामानुजन ने गणित से सम्बंधित अपना शोध जारी रखा। गणित के ट्यूशन से महीने में कुल पांच रूपये मिलते थे और इसी में गुजारा करना पड़ता था। यह समय उनके लिए बहुत कष्ट और दुःख से भरा था। उन्हें अपने भरण-पोषण और गणित की शिक्षा को जारी रखने के लिए इधर उधर भटकना पड़ा और लोगों से सहायता की मिन्नतें भी करनी पड़ी।

              इधर रामानुजन बेरोजगारी और गरीबी से जूझ ही रहे थे कि उनकी माता ने इनका विवाह जानकी नामक कन्या से कर दिया। आर्थिक तंगी और पत्नी की बढ़ी जिम्मेदारी को पूरा करने के लिए वे नौकरी की तलाश में मद्रास चले गए। चूँकि उन्होंने बारहवीं की परीक्षा उत्तीर्ण नहीं की थी इसलिए इन्हें नौकरी नहीं मिल पा रही थी और इसी बीच उनका स्वास्थ्य भी बुरी तरह खराब हो गया जिसके कारण वापस कुंभकोणम लौटना पड़ा। स्वास्थ्य ठीक होने के बाद वे दोबारा मद्रास गए और कुछ संघर्षों के बाद वहां के डिप्टी कलेक्टर श्री वी. रामास्वामी अय्यर से मिले जो गणित के बड़े विद्वान थे। अय्यर ने उनकी दुर्लभ प्रतिभा को पहचाना और अपने जिलाधिकारी रामचंद्र राव से कह कर इनके लिए 25 रूपये मासिक छात्रवृत्ति का प्रबंध करा दिया। 25 रूपये की इस छात्रवृत्ति पर रामानुजन ने मद्रास में एक साल रहते हुए अपना प्रथम शोधपत्र “जर्नल ऑफ इंडियन मैथेमेटिकल सोसाइटी” में प्रकाशित किया। इसका शीर्षक था “बरनौली संख्याओं के कुछ गुण”। राव की सहायता से उन्होंने मद्रास पोर्ट ट्रस्ट में क्लर्क की नौकरी कर ली। इस नौकरी में उन्हें गणित के लिए पर्याप्त समय मिल जाता था।

प्रोफेसर हार्डी के साथ पत्रव्यावहार और विदेश गमन

          रामानुजन का शोध धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा था पर अब स्थिति ऐसी थी कि बिना किसी अंग्रेज गणितज्ञ की सहायता के शोध कार्य को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता था। रामानुजन ने कुछ शुभचिंतकों और मित्रों की सहायता से अपने कार्यों को लंदन के प्रसिद्ध गणितज्ञों के पास भेजा पर इससे कुछ विशेष सहायता नहीं मिली। इसके बाद जब रामानुजन ने अपने संख्या सिद्धांत के कुछ सूत्र प्रोफेसर शेषू अय्यर को दिखाए तो उन्होंने उनको समय के प्रसिद्ध गणितग्य प्रोफेसर हार्डी के पास भेजने का सुझाव दिया।

         सन् 1913 में रामानुजन ने हार्डी को पत्र लिखा और स्वयं के द्वारा खोजी प्रमेयों की एक लम्बी सूची भी भेजी। पहले प्रो हार्डी को भी पूरा समझ में नहीं आया फिर उन्होंने अपने शिष्यों और कुछ गणितज्ञों से सलाह ली तो वे इस नतीजे पर पहुंचे कि रामानुजन गणित के क्षेत्र में एक दुर्लभ व्यक्तित्व है।

         इसके बाद प्रो हार्डी को ऐसा लगा की रामानुजन द्वारा किए गए कार्य को ठीक से समझने और आगे शोध के लिए उन्हें इंग्लैंड आना चाहिए। इसके बाद प्रोफेसर हार्डी और रामानुजन के बीच पत्रव्यवहार शुरू हो गया और हार्डी ने रामानुजन को कैम्ब्रिज आकर शोध कार्य करने का सुझाव दिया। शुरू में तो रामानुजन ने साफ़ माना कर दिया पर हार्डी ने प्रयास जारी रखा और आखरकार रामानुजन को मनाने में सफल हो गए। हार्डी ने रामानुजन के लिए केम्ब्रिज के ट्रिनिटी कॉलेज में व्यवस्था की।

          यहां से रामानुजन के जीवन में एक नए युग का आरम्भ हुआ और इसमें प्रोफेसर हार्डी की बहुत बड़ी और महत्वपूर्ण भूमिका थी। रामानुजन और प्रोफेसर हार्डी की यह मित्रता दोनो ही के लिए लाभप्रद सिद्ध हुई और दोनो ने एक दूसरे के लिए पूरक का काम किया। रामानुजन ने प्रोफेसर हार्डी के साथ मिल कर कई शोधपत्र प्रकाशित किए और इनके एक विशेष शोध के लिए कैंब्रिज विश्वविद्यालय ने इन्हें बी.ए. की उपाधि भी दी।

          सब कुछ ठीक चल रहा था लेकिन इंग्लैंड की जलवायु और रहन-सहन की शैली रामानुजन के अनुकूल नहीं थी जिसके कारण स्वास्थ्य खराब रहने लगा। डॉक्टरी जांच के बाद पता चला की उन्हें क्षय रोग था। चूंकि उस समय क्षय रोग की कोई दवा नहीं होती थी तो रोगी को स्वास्थ्य लाभ के लिए सेनेटोरियम मे रहना पड़ता था। रामानुजन भी कुछ दिनों तक सेनेटोरियम में रहे।

रॉयल सोसाइटी की सदस्यता

        इसके बाद वहां रामानुजन को रॉयल सोसाइटी का फेलो नामित किया गया। रॉयल सोसाइटी के पूरे इतिहास में इनसे कम आयु का कोई सदस्य आज तक नहीं हुआ है। रॉयल सोसाइटी की सदस्यता के बाद ट्रिनीटी कॉलेज की फेलोशिप पाने वाले वह पहले भारतीय भी बने।

         एक तरफ उनका कैरियर बहुत अच्छी दिशा में जा रहा था लेकिन दूसरी ओर उनका स्वास्थ्य गिरता जा रहा था। अंततः डॉक्टरों ने उन्हें वापस भारत लौटने की सलाह दी। भारत आने पर इन्हें मद्रास विश्वविद्यालय में प्राध्यापक की नौकरी मिल गई और वो अध्यापन और शोध कार्य में पुनः रम गए।

मृत्यु

      भारत लौटने पर भी इनके स्वास्थ्य में सुधार नहीं हुआ और उनकी हालत गंभीर होती जा रही थी। धीरे-धीरे डॉक्टरों ने भी जवाब दे दिया। उनका अंतिम समय नजदीक आ गया था। अपनी बीमारी से लड़ते-लड़ते अंततः 26 अप्रैल 1920 को उन्होने प्राण त्याग दिए। मृत्यु के समय उनकी आयु मात्र 33 वर्ष थी। इस महान गणितग्य का निधन गणित जगत के लिए अपूरणीय क्षति था।

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