"महान शूरवीर मेवाड़ मुकुट महाराणा प्रताप जी " |
साल बीते सदिया बीत गई मगर इतिहास की अमरगाथाओं में वो जीवित हैं मानव की क्या मजाल जो सदियों तक अपना नाम चलाए वो तो महामानव ही था, जिनका नाम भर समूचे भारत के सम्राट को रात भर सोने नहीं देता था. अकबर हर रात ये दुआ कर सोता कि कही सपने में वो नीले का सवार भाला लेकर न आ जाए, हाँ नाम दिलों में बसता हैं महाराणा प्रताप जी का, जिन्होंने अपने स्वाभिमान एवं धर्म की खातिर आजीवन मुगलों के आगे शीश न झुकाया.
राजपूती परम्परा जो सिर झुकाने की बजाय कटवाने की बात कही गई तो जीवन में महाराणा प्रताप जी जैसे राष्ट्र नायक ने अपनाकर साबित किया. राजपूताने और भारत की भूमि पर न जाने कितने हजार लाख शासक हुए और काल की परतों में दमन हो गये, मगर शिवाजी महाराज, महाराणा प्रताप जी, सभाजी राजे , झांसी की रानी, वीर कल्ला फत्ता, अजित सिंह, दुर्गादासजी, सूरजमल जी जैसे नाम आज भी बड़े सम्मान के साथ लिए जाते हैं. इन्होने राष्ट्र धर्म निभाया तथा अपने जीवन को राष्ट्र की रक्षा के लिए समर्पित कर दिया.
गुलामी की बेड़ियों में कराहती माँ भारती के सपूतों ने देश के कोने कोने से सम्प्रभुता को बचाने के यत्न जारी रखे, मेवाड़ से महाराणा प्रताप जी ने अपने दायित्वों का निर्वहन किया. महाराणा प्रताप जी सांगा के पौत्र एवं उदयसिंह जी के बड़े पुत्र थे. महाराणा प्रताप जी को मेवाड़ की गद्दी पर बिठाने में मेवाड़ी सरदारों का अहम योगदान था, जिन्होंने जगमाल की स्थान पर महाराणा प्रताप जी को अपना शासक चूना.
बलिष्ठ काया, शक्तिशाली, बहादुरी और युद्ध कला में प्रताप का कोई सानी नहीं था. महाराणा प्रताप जी का जब राज्याभिषेक किया जाने लगा तो उन्होंने मेवाड़ की प्रजा को यह वचन दिया कि, वे जब तक महलों में निवास नहीं करेगे जब तक मुगलों के अधीन आधे मेवाड़ को वापिस नहीं ले लेते. मध्यकाल में अरब और खाड़ी के देशों से सम्बन्ध के लिए मेवाड़ महत्वपूर्ण स्थल था, वही देश भर में सभी शासकों द्वारा अकबर की अधीनता स्वीकार कर लेने के बाद भी मेवाड़ का स्वतंत्र राज्य रहना अकबर अपनी प्रतिष्ठा के खिलाफ समझता था.
अकबर जानता था कि वह ऐसे जिद्दी और मातृभूमि के लिए प्राणों की बाजी लगाने वाले सच्चे शासक को अपनी ओर आसानी से नहीं मिला सकता, अतः उसने चार बार राजस्थान के ही महत्वपूर्ण शासकों को संधि का प्रस्ताव देकर मेवाड़ भेजा, मगर महाराणा प्रताप जी का इरादा कभी न बदलने वाला था. वे जानते थे कि अकबर की सेना को प्रत्यक्ष तौर पर नहीं हर सकते, उन्होंने कई योजनाएं बनाई. अफगानी शासक हाकिम खान सूरी को अपना सेनापति बनाया, मेवाड़ के भीलों को अपना सरदार चूना तथा छापामार शैली से युद्ध की तैयारी करने लगे.
महाराणा प्रताप का संपूर्ण जीवन कष्टों और मुश्किलों से भरा हुआ था । हल्दीघाटी युद्ध की विफलता के बाद उन्होंने अपने परिवार और कुछ अन्य साथियों के साथ अरावली की पहाड़ियों में शरण ली । उन्होंने जंगल और गुफाओं में बहुत कष्टपूर्ण जीवन व्यतीत किया । वे सख्त जमीन पर सोते थे तथा जंगली फलपत्तियाँ और वृक्षों की जड़ें खाकर अपना पेट भरते थे । कभी - कभी तो वह और उनका परिवार बिना कुछ खाए भूखा ही रह जाता था । परंतु इतने सारे कष्ट झेलकर भी राणा प्रताप अपने इरादों में अटल एवं अडिग रहे । उनके एक पुराने विश्वासपात्र मंत्री भामासाह नेपुनः सेना एकत्रित करने और मुगल सम्राट अकबर से युद्ध करने हेतु अपनी सारी धन दौलत राणा प्रताप के कदमों में रख दी ।
तत्पश्चात् महाराणा प्रताप ने पुनः सेना तैयार की । परंतु दुर्भाग्यवश वे चित्तौड़ वापिस नहीं आ सके । इतिहास साक्षी है महाराणा प्रताप ने अकबर के समक्ष कभी अपना सिर नहीं झुकाया । वे मन से कभी नहीं हारे और हर प्रकार की कठिनाई का सामना करके उम्र भर बारत की स्वतंत्रता के लिए लड़ते रहे । संभवतः वे भारतमाता को स्वतंत्र कराने के अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेते पर 19 जनवरी 1597 ई० को उनका शरीरांत हो गया । भारतवर्ष को उन पर गर्व है और सदैव रहेगा ।
🙏
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